21 June 2010

लोहा

जापान में ऐसा लोग 'लोहा' कहलाते हैं, जिन्हें रेलवे बहुत पसंद है। रेलेवे  प्रेमी। रेलवे को जापानी में  तेत्सुदो...'लोहे का रास्ता' कहते हैं। तेत्सु मतलब 'लोहा', और दो 'रास्ता' है। हम रेलवे प्रेमी को सिर्फ़  तेत्सु, या अपनेपन से ते-च्चान (तेत्सु चान)  कहते हैं। चानवाले का चान है।
लोहे को रेलवे लाइन या रेल गाड़ी के प्रकार ही नहीं, टाइम टेबुल, रेल गाड़ी चलने का आवाज़, रेलवे  का टिफ़िन, तरह तरह रेलवे से संबंध उत्सुकता लगाती हैं ।

मेरे पति कहते हैं, मेरे ख़ून में भी लोहा काफ़ी होता है।  इतना 'लोहा' नहीं हूँ, लेकिन मुझे भी रेलवे से चलना बहुत पसंद है। हवाई जहाज़ का टिकट कभी कभी रेलवे के से सस्ता होने के बावजूद, हमरी यात्र, ज़्यादातर रेल गड़ी से हैं। टाइम टेबुल देखते देखते कहाँ कब पहुँचेंगे, और उस के बाद किस गाड़ी पकड़ें, ऐसा योजना बनाकर टिकेट का आरक्षित करना तो यात्र वही से ज़्यादा पसंद है।

लेकिन मेरे विचार में मैं खास नहीं है। जैसा मैं, भातरत प्रेमी जापानियों सभी को, भारत में घूमते घूमते आखिर रेलवे पसंद हो जाता है। भारत बड़ा देश है और रेल गाड़ी में रहने का समय भी लम्बा है। हम जापान में 5 घंटे से ज़्यादा अधिकतर नहीं बैठते हैं। 5 घंटे से ज़्यादा समय लगेंगे तो शायद हावाई जहाज़ से जाना रेलवे से सस्ता और सुखुद जा सकते हैं। मैंने बर्थ भारत में पहली बार इस्तेमाल किया।

जापान में कहीं जाना चाहते हैं तो रात तक होटल पहुँचना होगा, लेकिन भारत में रेलगाड़ी में सोते सोते सवेरे कहीं स्टेशान पहुँच सकते हैं। यह बहुत अच्छा है और भारत के स्टेशान के पास रिटाइयारिंग रूम और शावर रूम हैं। रात देर पहुँचेंगे तो स्टेशान में ठहर सकते हैं और नहाकर बाहर जा सकते हैं। अच्छी सुविधाएं और अच्छी व्यवस्था है। जापान के स्टेशान के पास नहीं है, वह रुकने के लिए नहीं, गुज़र जाने की जगह है।

मगर अगर जापान के स्टेशान के पास ऐसा सुविधाएँ होने पर, जापान की यात्र इतना ज़्यादा मज़ेदार नहीं  होगी उतना मैंने भारत में अनुभव प्राप्त किया।क्योंकि जापानी रेलगाड़ी  में सब चुपचप रहते बैटते हैं। बगल के सीट पर बैटते हुए अंजान से बात करने का आदत नहीं है। सब PC से काम करते हैं, सोते हैं, पुस्तक पढते हैं, इयर फोने से सुनते हैं...खुद मज़ा लेते हैं।





रेलवे म्यूजियम, दिल्ली

4 comments:

  1. "बहुत अच्छी पोस्ट ओबा-सान मेरे ख्याल से रेल्गाड़ी से सफर करना ज़्यादा सुरक्षित होता है मुझे तो खिड़की के पास बैठ कर बाहर विशाल खेत ,बरगद के पेड़, नदियाँ-पुल,देखने में खूब मज़ा आता है ,अक्सर मैं गेट के पास बैठना पसन्द करता हूँ । बरगद के पेड़ अब नहीं मिलते पर हमारे पास बरगद ,पीपल के बोनसाई ज़रूर हैं....फिर मिलते हैं ओबा-सान"

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  2. अच्छी जानकारी दी आपने,
    भारतीय रेल एक चलता फ़िरता घर है
    जिसमें सवारी बैठने के बाद अपने रेल परिवार का ही एक सदस्य समझती है। कभी कभी रेल में बने अनजान दोस्त जीवन भर के दोस्त बन जाते हैं और हमेशा याद आते हैं मिलते जुलते रहते हैं।

    हां यहां फ़्लाईट में जरुर लोग अपना मुंह बंद करके बैठते है और किसी से बात भी नहीं करते। हो सकता है फ़्लाईट में सफ़र करने का गुरुर हो, जो उन्हे बगल के मुसाफ़िर से बात नहीं करने देता।

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  3. Amitraghat जी,
    आप की टिप्प्णी पढ़कर याद आई...मैन एक बार वाराणासी गई हूँ।
    जब गंगा के पास आते आते, बड़ा पुल की नज़र आई, तब मेरे सामने बैठते हुए लड़की, क़िड़की में से सिक्का फ़ेंक दिया।बोनसाइ, भारत में भी है?

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  4. ललित शर्म जी,
    बहुत रोचक लगा...फ़्लाई में आप लोग भी बात नहीं करते हैं। मैंने भारतीय रेल परिवार से कभी कभी खिलाई थी। AC से 2nd class और अच्छा लगा।

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